आप पढ़ रहे हैं हास्य कविता भाग्य की रेखा ( Hasya Kavita Bhagya Ki Rekha ) :-
हास्य कविता भाग्य की रेखा
मेले में हुए प्रथम दर्शन
टिक्की खाते उसको देखा।
सहसा उर से आयी आवाज
यही है मेरे भाग्य की रेखा।।
आंखो में बसी मासूमी थी
मुख पर थी मोहक मुस्कान।
हरा भरा हुआ पुनःमन मेरा
जो सदियों से था रेगिस्तान।।
मित्रों ने मुझे छोड़कर बंदूक से
गुब्बारों पर लगाया निशान।
इधर मेरे चंचल से नैनो का
टिक्की पे केंद्रित हुआ ध्यान।।
समक्ष जाने का साहस न था
संग उसके चार सहेली थी।
दिल की बात कह दू या फिर
रहने दू यह विचित्र पहेली थी।।
तभी उसकी एक सहेली ने
कहा वह लड़का हमको घूर रहा।
परन्तु ज्ञात नहीं था मुझको
कि मै मुसीबत से कुछ दूर खड़ा।।
मुझे लगा बात बन जायेगी
ईश्वर की कृपा होगी आज।
लेकिन कुछ क्षणों में ही
खुलने वाला था अनोखा राज।।
अन्त में मुझे देख कर मुस्काई
कहने लगी वह तो इशारों में।
पैसे दे देना टिक्की वाले के
नहीं तो पहुंचा दूंगी सितारों में।।
भरी हुई प्यारी सी जेब मेरी
एक नज़र देखने से हुई खाली।
प्रतीत हुआ बिना पटाखों के
जैसे निकल गई मेरी दिवाली।।
अपने नैनो से बोला मैंने
अब नहीं करूंगा ऐसी मस्ती।
है बड़ा महंगा सौदा इसका
नहीं सोचना कि यह है सस्ती।।
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नमस्कार प्रिय मित्रों,
मेरा नाम सूरज कुरैचया है और मैं उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के सिंहपुरा गांव का रहने वाला एक छोटा सा कवि हूँ। बचपन से ही मुझे कविताएं लिखने का शौक है तथा मैं अपनी सकारात्मक सोच के माध्यम से अपने देश और समाज और हिंदी के लिए कुछ करना चाहता हूँ। जिससे समाज में मेरी कविताओं के माध्यम से मेरे शब्दों के माध्यम से बदलाव आए।
क्योंकि मेरा मानना है आज तक दुनिया में जितने भी बदलाव आए हैं वह अच्छी सोच तथा विचारों के माध्यम से ही आए हैं अगर हमें कुछ बदलना है तो हमें अपने विचारों को अपने शब्दों को जरूर बदलना होगा तभी हम दुनिया में हो सब कुछ बदल सकते हैं जो बदलना चाहते हैं।
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