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हिंदी कविता – कंपन्न
कम्पन्न बन के श्वास से
चीखें सुनायी काल,
है रात्रि का विष वेला यहाँ
होती प्रभा बिछायी जान।
नवचेतना है आयी अभी
लिपटी हुयी अदृश्यनाल,
निज आशियाँ निर्मित यहाँ
है दंभ निति उसकी चाल।
बनते मुसाफिर है यहाँ
नित रोज उसकी नवढाल,
है बुद्धि का नाशक चक्र
गुण हैं मिले सर्वज्ञ ताल।
ताम का स्वामी तमपिता
आह्वाहन है उसकी राल,
है वृक्ष शुष्का यह मगर
नित रोज निकले असंख्य डाल।
घनघोर की वर्षा हुयी
\धुलते नहीं कलुषित थाल,
कैसा है तेरा रूप रंग
साकार ब्रह्म की तू कैसी छाल।
तू उदित था यह अवतरित
तूने रचाया खेल,
है अदालत तू न्यायधीश
विश्वबंदी निर्मित जेल।
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यह रचना हमें भेजी है पंकज कुमार जी ने कोरारी गिरधर शाह पूरे महादेवन का पुरवा, अमेठी से।
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