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हिंदी कविता परछाईयाँ
न शौक, न श्रृंगार ,न इच्छा न चाह हो,
न दु:ख हो न दर्द हो,कठिन भले ही राह हो,
तेरे बिना रहना कैसा?भाये भला तनहाइयां?
बनकर सदा चलता रहूं ,अमिट तेरी परछाइयां।
कहता कौन? होता जुदा ,छाये में छोड़ता साथ है,
फिर कहां से वह आ जाता? जब होता प्रकाश है,
मौन हो ,बेशक चले ,बन शुभ्र चांद की छांइयां।
बनकर सदा चलता रहूं, अमिट तेरी परछाइयां।।
फर्क कोई पड़ता नहीं ,जब तेज हवा या धूप हो,
थक जाये दुनिया भले,थकता नहीं दो टूक वो,
क्या छोड़ देता साथ वह?,जब आती है कठिनाइयां।
बनकर सदा चलता रहूं, अमिट तेरी परछाइयां।।
अंश है वह आप का ,अपना भले न रूप हो,
मिट सकता नही वह सत्य सा,बाकी भले सब झूठ हो,
सीख लो इससे जरा, हमसफ़र की कहानियां।
बनकर सदा चलता रहूं, अमिट तेरी परछाइयां।।
होता है उसमें आलिंगन,पर होता नही मुस्कान है,
गहरी मोहब्बत प्यार से ,हम कितने अनजान हैं,
हर बात से वह बेखबर, समझता नहीं रुसवाईयां।
बनकर सदा चलता रहूं ,अमिट तेरी परछाइयां।।
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।
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