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कविता भारत की धरा
अश्रु था,नीर नहीं
अभिशाप का अंगार था
प्रलय की ज्वाला में
थी भारत की,अमर धरा…
आंधी थी,चारों दिशाएँ
पड़ गई थी वो बंधन में
राहें भी अंधेरी सी थीं
पर था,अगाध संकल्प भरा….
निरंतर आविर्भूत हो
आक्रमण की शोध क्या,परिणाम क्या
बस हुआ कर्म का तारतम्य
इस यात्रा का अंत दिखाई दिया….
युग बीते,समय बीता
तप बना आकाश विस्तृत
भू-भाल पर था दीप्त व्योम
सागर में था,चरण भरा….
लोग थे नवनीत हिम से
करुण सरिता को साथ ले
छवि धरा ले नयन में
अमन अनुराग का गीत छेड़ा….
गीत में था,जयघोष भी
हमारी स्वर्ग-भूमि संधि सी
स्वस्ति लय जो बन चुकी
मंत्र-ध्वनि संग,शंख फूंका….
विजय घोष का शंख फूंका…. !!
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है इली मिश्रा जी ने।
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Very nice