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कविता कर्म या मुकद्दर
एक दिन
निकला सड़क पर
शाम लगभग नौ बजे
मैं गया कुछ दूर देखा
सब्जियां कुछ थे सजे,
टिमटिमाते मोमबत्ती
की उजाला के तले
बेंचती वह सब्जियां
तन मांस जिसके थे गले।
था अचंभित सोंच में कुछ
जान भी मैं न सका
बैठ इतनी रात में वह
बेंचती क्यों सब्जियां,
जानने की चाह में
मैं दो कदम आगे बढ़ा,
पूछ बैठा अंत में कि
क्या जरूरत है पड़ा?
सब्जियां ही बेच साहब
पालती परिवार हूं
कर और भी क्या सकती हूं
अब तो मैं लाचार हूं,
बेंच कर जाऊंगी वापस
लौट जब परिवार मे
भूख मिट पायेगी तब ही
परिवार में दो चार की।
स्तब्ध था मन शान्त मेरा
सोंच कर इस बात को
दो निवाला के लिए यह
बैठी है इस रात को,
मैं पचाने खुद का भोजन
हूं टहलता इस समय
बैठ यह रोटी के खातिर
रात के इस असमय।
कर्म का सब खेल है या
है मुक़द्दर का लिखा
चाहता है कौन जीवन
जीना दुखड़ों से भरा
सोंचते ही सोंचते घर
वापस आया कब भला
क्या पता कब नींद आयी
कब सवेरा हो चला।
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।
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