आप पढ़ रहे हैं ” कविता प्रमुदित थे संगीत में ” :-
कविता प्रमुदित थे संगीत में
शून्य गगन,शशि नूतन
हाथों में रजत धार लिये
सुमधुर ध्वनि,नूपुर संग
अक्ष पर अविरत नृत्य करते **!!
असंख्य ग्रह और अनंत तारे
पग बढ़ाते,चढ़े क्षितिज से
शब्द रहित,प्रेम की भाषा में
प्रमुदित हो,संगीत बहाते**!!
शुभ्र श्रृंगार कर,शशि किरणें
घोल रहीं थीं,अपनी सुरभि
मदमस्त हो,गा रहीं रागिनी
दृश्य अलौकिक,मुकुलित जैसे**!!
देख रहे घनघोर बादल
तम सिन्धु सा,अंधकार मचायें
रूप-रेखा,उलझनों सी बन
विराग से वो,गीत बोले**!!
चमक उठी विद्युत की आभा
बिन ताल लय की,गर्जना सी
लहरों की थपकी में,बह जाने को
बढ़ गईं थीं,आसमां की धड़कने **!!
अथक सी थी,काल गति
लक्ष्य अपने ही,थे सबके
परिवर्तन का आधार लेकर
छोड़ते चले,पदचिह्न अपने**!!
नियति का,नियम मानकर
गंतव्य मार्ग पर,पैर धरे
एक पथ के ना,थे पथिक सब
बिखराते चले,सभी कारवां अपने**!!
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है इली मिश्रा जी ने।
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