पिता का दर्द पर कविता
आज सुबह कोई
बाहर की सड़क पर,
खाँस रहा था।
मैंने पूछा कौन ?
जबाव था मौन,
मैंने पूछा बाबा ?
किसी ने नहीं किया दावा,
मैंने पूछा कोई काम ?
जवाब आया थोड़ा आराम !
बाबू मैं हूं दीनाराम
करना चाहता हूं थोड़ा विश्राम।
पर यहां क्यों?
जवाब आया बीमार हूं,
लाचार हूं बीवी का सिंगार हूँ
मैं उसका सिंदूर,गले का हार हूँ।
उसकी बात पर आ गई दया,
कान लगा कर रखी थी माया,
मैं पूछा क्या चाहिए?
थोड़ा रुक ,उसने कहा।
मेरी बीवी ने जन्म के समय
तुझे छाती का दूध पिलाया था,
बेटा- बेटा कह कर तुझे
छाती से लगाया था।
मुझे थोड़ा दे दो पानी,
भूखा हूं बेटा ,कैसे कहूं कहानी।
गया मैं जब घर के अंदर
बीवी बन गई थी सिकंदर,
बोली पहले साबुन से हाथ धोना
फिर साथ मेरे बैठना-सोना,
बाहर बूढा में है वायरस कोरोना
बात सुनकर मुझे आ गया रोना।
बंद करो रोना-धोना,
बाप चाहिए या बेटा सोना।
उसकी बात से गया मैं डर
मर जाऊं या छोड़ घर दूंगा,
ए खुदा तू ही कुछ ऐसा कर
मुझे बुला ले तू ऊपर।
बाहर खिड़की से जब देखा
खींच गई थी लक्ष्मणरेखा,
उसके स्थान पर कुत्ता पाया
पास खड़ा था, दुम हिलाया।.
यह कविता हमें भेजी है एसपी राज जी ने बेगुसराय से।
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