आप पढ़ रहे हैं प्रार्थना कविता – कण-कण में ही तुम्हीं बसे हो :-
प्रार्थना कविता
पर्वत घाटी ऋतु वसंत में
नभ थल जल में दिग्दिगंत में
भक्ति भाव और अंतर्मन में
सदा निरंतर आदि अंत में
युगों युगों तक तुम्हीं अजेय हो,
कण-कण में ही तुम्हीं बसे हो।
सृष्टि दृष्टि हर दिव्य गुणों में
स्वर अक्षर हर शब्द धुनों में
हम सबमें हर पतित दुखी में
दीन – हीन हर विद्वजनों में
जन जन में भी तुम्हीं बसे हो
कण कण में ही तुम्हीं बसे हो।
कीर्ति तुम्हारी फैली जग में
हर सांसों में तू रग – रग मे
धूप छांव में अग्नि वायु में
जड़ चेतन में नर विहंग में
दृष्टि जहां भी वहीं खड़े हो,
कण- कण में ही तुम्हीं बसे हो।
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रचनाकार का परिचय
यह कविता हमें भेजी है रामबृक्ष कुमार जी ने अम्बेडकर नगर से।
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