स्त्री पर कविता स्त्री के प्रति हमारे समाज में बहुत पुरातन समय से यह धारणा चली आती रही है कि वो कभी भी पुरुष की बराबरी नहीं कर सकती। स्त्री की इसी व्यथा को बयान कर रही है यह स्त्री पर कविता :-

Stree Par Kavita
स्त्री पर कविता

स्त्री पर कविता

उड़ना चाहती थी ,
आसमान की बुलन्दियों को छूना चाहती थी।

नियमों और परम्पराओं का,
जाल ऐसा बुना गया।

न लाँघ सकी वो घर की चौखट को,
घर के भीतर कैद होती चली गयी ।

पूँजीवादी व्यवस्था ने ,
कुछ इस तरह प्रहार किया
स्त्री को स्त्री नहीं
केवल भोग की वस्तु बना दिया ।

स्त्री ने जिनको जन्म दिया,
उसने ही उसको कैद दिया।

स्त्री ही है,
जो तुम्हे जन्म देती ,
माँ के रूप मेंअपनी ममता लुटाती,
पत्नी के रूप में जीनव भर साथ देती।

स्त्री के न होने से,
पुरुषों का जीवन है अधूरा ।

वो स्त्री ही है,
जो मकान को घर बनाती,
वंश को बढ़ाती ।

स्त्रियों से ही धर्म टीका है,
सभ्यता भी स्त्रियों पर है। ।

सृष्टि को नया आयाम देती है
स्त्रियां…..

समाज का ये दोहरापन तो देखिए ,
जो स्त्री को केन्द्र बनाकर,
कविता रचते ,
गीत बनाते,
उन्हें देवी का रूप देते,
फिर बाँध देते हैं,
परंपरावादी बेड़ियोँ से,
और छीन लेते उससे उसकी आजादी।


रचनाकार का परिचय

यह कविता हमें भेजी है प्रीति साव जी ने बहुला , दुर्गापुर ( पश्चिम बंगाल ) से।

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